लेखनी कविता - साँझ-12 - जगदीश गुप्त

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साँझ-12 / जगदीश गुप्त निमर्म हिम-शैल-शिखर से, जब भी जाकर टकराते। मेरी करूणा के बादल, सब चूर-चूर हो जाते।।१६६।। विक्षुब्ध प्रलय-प्लावन में, आँसू का जलधि विकल हो। पलकों के नीचे जल ...

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